
Recent Reviews by Deepak Dua
Independent Film Journalist & Critic

Deepak Dua is a Hindi Film Critic honored with the National Award for Best Film Critic. An independent Film Journalist since 1993, who was associated with Hindi Film Monthly Chitralekha and Filmi Kaliyan for a long time. The review of the film Dangal written by him is being taught in the Hindi textbooks of class 8 and review of the film Poorna in class 7 as a chapter in many schools of the country.
Films reviewed on this Page
Agni
Sikandar Ka Muqaddar
Vijay 69
The Midwife's Confession
Bandaa Singh Chaudhary
Singham Again
Bhool Bhulaiyaa 3
Jigra
Vicky Vidya Ka Woh Wala Video
The Signature
Agni

‘अग्नि’-वीरों को हल्का-सा सलाम
‘एक भी फायर फाइटर का नाम मालूम है क्या पब्लिक को…? नेता, अभिनेता के नाम का चौक बनाते हैं…!’
इस फिल्म में एक फायरमैन जब यह कहता है तो उसकी यह बात कानों को चीरती हुई निकल जाती है। सच ही तो है। हम में से कितने होंगे जो किसी फायरमैन को पर्सनली जानते हैं? कितने होंगे जिन्हें उनकी निजी और वर्किंग ज़िंदगी के बारे में करीब से पता है? सच यही है कि ज्वाला से खेलने वाले जांबाज़ों के बारे में हम में से ज़्यादातर लोग नहीं जानते और इस सच का एक स्याह पहलू यह भी है कि हिन्दी सिनेमा में आज तक इन लोगों को केंद्र में रख कर एक भी फिल्म नहीं बनी। अमेज़न प्राइम पर आई राहुल ढोलकिया की यह फिल्म ‘अग्नि’ उसी कमी को दूर करती है और हमें दिखाती है कि ये ‘अग्नि-वीर’ भी हमारी-आपकी तरह इंसान हैं, लेकिन कुछ अलग जीवट वाले।
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Sikandar Ka Muqaddar

बर्बाद है
चलो-चलो इक फिल्म बनाएं, नाम कैची-सा ढूंढ के लाएं, हीरों की चोरी करवाएं, चोर के पीछे पुलिस दौड़ाएं, चूहे-बिल्ली का खेल दिखाएं, अंत में एक ट्विस्ट ले आएं, पब्लिक को मूरख मान जबरन अपनी थ्योरी पकड़ाएं, चलो-चलो इक फिल्म बनाएं। सोच कर ही रोंगटे हरकत में आने लगते हैं कि नीरज पांडेय जैसे थ्रिलर बनाने में उस्ताद समझे जाने वाले निर्देशक की फिल्म में 50-60 करोड़ के हीरे चोरी होंगे, शक तीन लोगों पर जाएगा, अपनी मूल वृत्ति यानी इंस्टिंक्ट पर हद से ज़्यादा गुमान करने वाला एक पुलिस अफसर आकर केस सुलझाएगा लेकिन इस काम में 15 साल बीत जाएंगे और फिर एक ऐसा ट्विस्ट आएगा कि बस…!
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Vijay 69

बचकाना, मनमाना ‘विजय 69’
69 की उम्र में विजय मैथ्यू को अहसास होता है कि उसने पूरे जीवन में आखिर किया क्या? कल को वह मर गया तो लोग उसकी तारीफ में क्या बोलेंगे? वह तय करता है कि वह ट्रायथलन में हिस्सा लेगा और 67 की उम्र में ट्रायथलन पूरी कर चुके किसी शख्स का रिकॉर्ड तोड़ेगा। ट्रायथलन यानी एक साथ डेढ़ किलोमीटर स्विमिंग, 40 किलोमीटर साइक्लिंग और दस किलोमीटर की दौड़। क्या विजय यह सब कर पाएगा? कर ही लेगा क्योंकि सपनों की कोई एक्सपायरी डेट नहीं होती। चलिए जी, यह तो हुई कहानी की बात। इस किस्म की फिल्मों की कहानियां तो प्रेरक होती ही हैं। इसकी भी है। लेकिन ऐसी फिल्मों में कहानी से बढ़ कर होता है उसका ऐसा वाला प्रेज़ेंटेशन जो दर्शकों के रोंगटे खड़े कर दे, उनके दिलों में भावनाओं का ज्वार पैदा कर दे, उनका दिमाग झंझोड़ दे और जिसे देख कर लगे कि अगर इस फिल्म के हीरो की तरह हमने यह नहीं किया तो फिर क्या किया। लेकिन अफसोस यह फिल्म इस मोर्चे पर नाकाम रही है, बुरी तरह से। दिक्कत असल में इस फिल्म की लिखाई के साथ है। अक्षय रॉय ने कहानी का आइडिया तो अच्छा सोच लिया और उसे ट्रायथलन के साथ जोड़ कर अच्छा विस्तार भी दे दिया लेकिन उसी कहानी को एक स्क्रिप्ट के तौर पर बुनते और उसमें किस्म-किस्म की घटनाओं व किरदारों को चुनते समय वह फैल गए और नतीजे के तौर पर जो बन कर आया वह न सिर्फ रूखा है बल्कि सूखा भी है और पिलपिला भी।
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The Midwife's Confession

चौंकाती, दहलाती ‘द मिडवाइफ्स कन्फैशन’
‘लड़की के मुंह में नमक डाल कर मुंह दबा देते थे, या फिर यूरिया खाद डाल देते थे, कई बार गर्दन पकड़ कर भी मरोड़ देते थे तो बच्ची मर जाती थी।’ बिहार के गांवों में दाई का काम करने वाली महिलाएं जब यह कहती हैं तो सुन कर दिल दहल जाता है। सच तो यह है कि बी.बी.सी. के यू-ट्यूब चैनल पर आई एक घंटे की डॉक्यूमैंट्री ‘द मिडवाइफ्स कन्फैशन’ (The Midwife’s Confession) देखते हुए दिल एक बार नहीं, कई बार दहलता है, बेचैन होता है, चौंकता है, उछलता है और डूबने भी लगता है।
Bandaa Singh Chaudhary

हर ’बंदा’ सिनेमा का ‘चौधरी’ नहीं होता
अस्सी के दशक के पंजाब के बारे में मुमकिन है नई पीढ़ी के लोग खुल कर न जानते हों। उन्हें यह न पता हो कि सांझे चूल्हों और साझी विरासत वाली पंजाब की धरती पर उन दिनों फसलों की हरियाली से ज़्यादा बेकसूरों के खून की लाली दिखती थी। कुछ लोग थे जो परायों के बहकावे में आकर अपनों को ही मार रहे थे। जहां एक तरफ हिन्दुओं को चुन-चुन कर मारा जा रहा था और उन्हें पंजाब छोड़ने पर मजबूर किया जा रहता वहीं दूसरी तरफ सिक्ख भी पूरी तरह से सुरक्षित नहीं थे। लेकिन उस माहौल में बंदा सिंह चौधरी जैसे कुछ लोग थे जिन्होंने पलायन करने, डरने या मरने की बजाय मुकाबला करने का रास्ता चुना था। यह फिल्म ’बंदा सिंह चौधरी’ उस एक बंदे के बहाने से ऐसे लोगों के जुझारूपन की कहानी दिखाती है।
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Singham Again

होता दम तो अकेले आता ‘सिंहम’
2011 की ‘सिंहम’ तो ज़रूर याद होगी आपको। 2010 में आई इसी नाम की एक कामयाब तमिल फिल्म के इस रीमेक में स्टार के नाम पर कोई था तो सिर्फ अजय देवगन। लेकिन इसके साथ थी एक शानदार ढंग से कही गई कहानी जिसे निर्देशक रोहित शैट्टी ने अपने कसे हुए निर्देशन और ज़बर्दस्त एक्शन दृश्यों से ऐसा बना दिया था कि अब उस फिल्म की गिनती हिन्दी सिनेमा की कल्ट फिल्मों में होती है। लेकिन जैसा कि अपने यहां भेड़चाल है कि एक फिल्म हिट हो जाए तो उसका सीक्वेल ले आओ, सीक्वेल न बनता हो तो फ्रेंचाइज़ी ले आओ, ज़रूरत हो या न हो, उसमें ठूंस-ठूंस कर मसाले डाल दो, फिर अगल-बगल की फिल्मों के किरदार पकड़ लाओ और अपना खुद का एक ‘मसाला यूनिवर्स’ बना दो। रोहित शैट्टी तो वैसे भी इस काम में माहिर रहे हैं। एक तरफ ‘गोलमाल’ की कॉमेडी और दूसरी तरफ ‘सिंहम’, ‘सिंबा’, ‘सूर्यवंशी’ की मारधाड़ वाले दो यूनिवर्स खड़े कर चुके रोहित इस जन्म में कुछ नया न भी करें तो ये दोनों यूनिवर्स ही उन्हें और उनके कलाकारों को ब्रेड-बटर खिलाने के लिए काफी रहेंगे।
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Bhool Bhulaiyaa 3

रंगबिरंगी, मसालेदार, टाइमपास
2007 की ‘भूल भुलैया’ तो ज़रूर याद होगी आपको। तर्क की कसौटी पर कसी हुई प्रियदर्शन निर्देशित वह फिल्म एक सायक्लोजिकल सस्पैंस-थ्रिलर थी जिसे आज हम हिन्दी की क्लासिक फिल्मों में गिनते हैं। उसके 15 साल बाद आई ‘भूल भुलैया 2’ को उस फिल्म के कंधे पर सवार होकर सिर्फ और सिर्फ इसलिए बनाया गया था ताकि नोट बटोरे जा सकें। वह फिल्म पिछली वाली का सीक्वेल नहीं बल्कि उसी कड़ी की एक फ्रेंचाइज़ी फिल्म थी जिसमें मंजुलिका को भूतनी दिखा कर लोगों को डराया और कुछ मसखरे जोड़ कर लोगों को हंसाया गया था। अनीस बज़्मी के निर्देशन में आई उस फिल्म को आज हम भले ही एक सफल फिल्म कहें लेकिन थी वह एक औसत दर्जे की मसाला फिल्म ही। अब अनीस के ही निर्देशन में आई यह ‘भूल भुलैया 3’ (Bhool Bhulaiyaa 3) भी ऐसी ही है-हॉरर और कॉमेडी का मसाला लपेट कर आई एक औसत फिल्म जो कुछ पल को हंसाएगी, डराएगी, नोट बटोरेगी मगर इज़्ज़त नहीं कमा पाएगी।
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Jigra

सिर्फ ‘जिगरा’ है, दिमाग नहीं
भारत से अमीर परिवार के दो लड़के एक बिज़नेस ट्रिप पर एक छोटे-से देश में गए हैं। वहां एक लड़के की जेब से ड्रग्स मिलती है और इल्ज़ाम दूसरे लड़के पर आ जाता है। उस देश में इस अपराध की एक ही सज़ा है-मौत। लेकिन उस लड़के की बहन आ पहुंची है उसे बचाने। कानून का सहारा उसके काम नहीं आता तो वह जेल तोड़ने का इरादा कर लेती है। तोड़ पाती है वह जेल? बचा पाती है अपने भाई को? कैसे करेगी वह इतना बड़ा काम?
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Vicky Vidya Ka Woh Wala Video

विकी विद्या के वीडियो का कॉमेडी वाला रायता
1997 का ऋषिकेश शहर। विकी-विद्या शादी के बाद हनीमून के लिए गोआ गए जहां इन्होंने अपने अंतरंग पलों का एक वीडियो बनाया। घर लौट कर उस वीडियो की सीडी देखी, खुश हुए और सो गए। उसी रात एक चोर इनके घर से सीडी प्लेयर चुरा ले गया। उसी में थी वह सीडी जिसमें था इनका ‘वो वाला वीडियो’। अब अगर वह वीडियो दुनिया के सामने आ गया तो…? यहां से शुरू हुई तलाश। तो क्या इन्हें मिल पाया वह चोर…? वह सीडी प्लेयर…? वह वीडियो…?
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The Signature

संदेश और उपदेश ‘द सिग्नेचर’ में
अरविंद और मधु अपनी शादी की 35वीं सालगिरह मनाने विदेश जा रहे हैं। अचानक मधु बीमार होकर वेंटिलेटर पर पहुंच जाती है। अरविंद जैसे-तैसे कर के अस्पताल के लाखों रुपए का बिल भर रहा है। लेकिन मधु के बचने की अब किसी को उम्मीद नहीं है, खुद इनके बेटे को भी नहीं। हर कोई चाहता है कि अरविंद उस फॉर्म पर सिग्नेचर कर दे जिसके बाद मधु का वेंटिलेटर हटा दिया जाएगा। लेकिन अरविंद का सवाल है कि मधु के मरने-न मरने का फैसला मैं क्यों लूं? कुछ अलग-सी कहानी है ‘द सिग्नेचर’ (The Signature) की, संजीदा किस्म की। इस कहानी को लेखक गजेंद्र अहीरे ने फैलाया भी बहुत संजीदगी के साथ है। गजेंद्र के निर्देशन में भी उतनी ही संजीदगी दिखाई देती है। दरअसल यह 2013 में आई गजेंद्र की ही मराठी फिल्म ‘अनुमति’ का हिन्दी रीमेक है जिसमें विक्रम गोखले ने मुख्य भूमिका निभा कर सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्रीय पुरस्कार पाया था। अब इस हिन्दी फिल्म में उसी भूमिका को अनुपम खेर ने निभाया है।