
Recent Reviews by Deepak Dua
Independent Film Journalist & Critic

Deepak Dua is a Hindi Film Critic honored with the National Award for Best Film Critic. An independent Film Journalist since 1993, who was associated with Hindi Film Monthly Chitralekha and Filmi Kaliyan for a long time. The review of the film Dangal written by him is being taught in the Hindi textbooks of class 8 and review of the film Poorna in class 7 as a chapter in many schools of the country.
Films reviewed on this Page
Mrs
Deva
The Storyteller
Sky Force
Azaad
Fateh
Chaalchitro: The Frame Fatale
Baby John
Despatch
Zero Se Restart
Mrs

अपने वजूद की रेसिपी तलाशती ‘मिसेज़’
करीब चार साल पहले आई राईटर-डायरेक्टर जियो बेबी की मलयालम फिल्म ‘द ग्रेट इंडियन किचन’ को खासी चर्चा, सराहना और सफलता मिली थी। उस फिल्म में शादी के बाद ढेरों अरमान लेकर आई नई बहू सिर्फ किचन तक सिमट कर रह जाती है। उसका टीचर पति स्कूल में परिवार की अवधारणा तो समझा लेता है लेकिन अपने घर में मालिक बना रहता है। बाद में यह फिल्म तमिल में भी इसी नाम से बनी थी। अब इसी फिल्म का यह हिन्दी रीमेक ‘मिसेज़’ नाम से ज़ी-5 पर आया है। मायके में डांस करने और सिखाने वाली ऋचा अब नई बहू है। उसका पति महिलाओं का डॉक्टर है। घर के काम में हाथ तो दूर, उंगली तक नहीं बंटाता। नहाने के बाद उसका अंडरवियर तक अलमारी से पत्नी निकालती है। घर लौटता है तो घुसते ही अपना बैग पत्नी को पकड़ा देता है। कसूर उसका भी नहीं है। बचपन से ही उसने अपने पिता को यही करते और मां को उनकी चाकरी करते देखा है। ऋचा भी अब इस घर में सिर्फ किचन तक सिमट कर रह गई है। लेकिन उसे तो अपने वजूद की तलाश है। कैसे कर पाएगी वह अपने अरमानों को पूरा?
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Deva

क्या बुलशिट फिल्म बनाई है रे ‘देवा’…!
फिल्म ‘देवा’ का ट्रेलर बताता है कि किसी ने पुलिस के फंक्शन में घुस कर किसी पुलिस वाले को मारा है, अब पुलिस वाला यानी देवा उनके यहां घुस कर उनको मारेगा। जी हां, इस इतना-सा ही ट्रेलर है। दरअसल इस फिल्म को बनाने वालों के पास इससे ज़्यादा बताने लायक कुछ था ही नहीं। चलिए, आगे का हम से सुनिए। फिल्म की शुरुआत दिखाती है कि देवा ने यह केस सुलझा लिया है कि उसके दोस्त पुलिस वाले को किस ने मारा। लेकिन इससे पहले कि वह किसी को कुछ बताए, उसका एक्सिडैंट हो जाता है और उसकी काफी सारी याद्दाश्त चली जाती है। लेकिन वह इस केस पर काम करता रहता है और आखिर पता लगा ही लेता है कि कातिल आखिर कौन है। 2013 में आई अपनी ही बनाई मलयालम फिल्म ‘मुंबई पुलिस’ का 12 साल बाद हिन्दी में रीमेक लेकर आए वहां के निर्देशक रोशन एन्ड्रयूज़ ने मूल फिल्म की कहानी में कुछ एक बदलाव करके कत्ल के एंगल को बदला है जो विश्वसनीय भी लगता है। लेकिन इस फिल्म की हिन्दी में पटकथा लिखने के लिए लेखकों की टीम ने जो मसालेदार हलवा तैयार किया है, उसने जलवा कम बिखेरा है, बलवा ज़्यादा मचाया है। इस फिल्म को देखते हुए पहला अहसास तो यह होता है कि इसे लिखने, बनाने वालों को न तो पुलिस डिपार्टमैंट की गहरी जानकारी है और न ही उनके काम करने के तौर-तरीकों की। अब चूंकि फिल्म लिखनी ही थी तो इन लोगों ने मिल कर अपनी सहूलियत के हिसाब से सीन गढ़े। जहां चाहा फिल्म में आधुनिक गैजेट्स दिखा दिए, जहां चाहा सी.सी.टी.वी. तक गायब करवा दिया। पुलिस वाले कभी बिना बुलैट प्रूफ जैकेट के एनकाऊंटर पर चल दिए तो कभी उन्हें बेसिक समझ से भी पैदल दिखा दिया।
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The Storyteller

सुलाने का काम करता
सिनेमा के लिए लिखी गई हर कहानी बड़े पर्दे के लिए नहीं होती। होती, तो लंबे अर्से से बन कर रखी यह फिल्म काफी पहले रिलीज़ हो गई होती। एक सच और भी है कि सिनेमा के लिए लिखी गई हर कहानी पर ‘सिनेमा’ बन ही जाए, यह भी ज़रूरी नहीं। इसी कहानी को ही देखिए। कोलकाता में रह रहा तारिणी बंदोपाध्याय अखबार में विज्ञापन देख कर अहमदाबाद जा पहुंचता है जहां उसे एक ऐसे अमीर कारोबारी रतन गरोडिया को कहानियां सुना कर सुलाने का काम मिलता है जिसे नींद न आने की बीमारी है। कहानियां सुनने-सुनाने के दौरान इन दोनों की बातें इस फिल्म को एक अलग दिशा देती हैं। फिल्मकार सत्यजित रे ने बतौर लेखक जो लोकप्रिय किरदार रचे उनमें एक पात्र तारिणी खुरो का भी था। इस किरदार को केंद्र में रच कर लिखी गईं उनकी ढेरों कहानियों में से आखिरी कहानी ‘गोल्पो बोलिए तारिणी खुरो’ यानी ‘कहानियां सुनाने वाला तारिणी अंकल’ थी। उसी लघु कथा को आधार बना कर तीन लेखकों ने इस फिल्म की पटकथा तैयार की है जिसमें इंसानी जीवन और दुनियावी पेचीदगियों के बारे में बातें हैं। लेकिन इस फिल्म के साथ दिक्कत यही है कि इसमें बातें ही बातें हैं। हालांकि ये बातें बुरी नहीं हैं और इन्हें ध्यान से सुना जाए तो ये कुछ बताती-सिखाती ही हैं।
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Sky Force

उड़ते शेरों का शौर्य दिखाती ’स्काई फोर्स’
पहले एक सच्ची कहानी सुन लीजिए। 1965 में हुई भारत-पाकिस्तान की जंग में भारतीय वायु सेना ने पाकिस्तान के भीतर तक घुस कर उनके सरगोधा एयर-बेस को न सिर्फ बुरी तरह तबाह कर दिया था बल्कि अमेरिका से उन्हें तोहफे में मिले बहुत सारे लड़ाकू जहाजों को भी नष्ट कर दिया था जबकि वे जहाज भारत के लड़ाकू जहाजों से कई गुना बेहतर थे। इस अभियान में एक भारतीय लड़ाकू विमान भी नष्ट हो गया था और उसका पायलट लापता। वायु सेना ने उस पायलट ए.बी. देवैया को ’मिसिंग इन एक्शन’ घोषित कर दिया लेकिन उसके करीबी विंग कमांडर तनेजा को हमेशा लगता रहा कि वह पायलट जीवित है। क्या हुआ था उस पायलट के साथ…? क्या वह सचमुच लापता हो गया था…? मर गया था…? या फिर…!
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Azaad

बोरियत का लगान वसूलती
कहानी है मध्य भारत के बीहड़ इलाके की, समय है 1920 का। लोकल ज़मींदार अंग्रेज़ों का पिट्ठू है और अंग्रेज़ अफसर के कहने पर गांव वालों को मज़दूरी के लिए जबरन दक्षिण अफ्रीका भेजता है। वह अपनी बेटी को अंग्रेज़ी रंग-ढंग सिखा रहा है ताकि अंग्रेज़ अफसर के कमअक्ल बेटे से उसे ब्याह सके। उधर उसका बेटा गांव के एक नौजवान विक्रम ठाकुर की प्रेमिका को जबरन ब्याह लाया है और विक्रम बन चुका है डकैत। (ओह सॉरी, बीहड़ में बागी होते हैं, डकैत मिलते हैं पारलामेंट में…!) ज़मींदार के यहां घोड़ों की देखभाल करने वाले का बेटा गोविंद घोड़ों का दीवाना है लेकिन घोड़े उसकी औकात से बाहर हैं और ज़मींदार की बेटी भी। उसे अपनी औकात बदलनी है और जालिमों को भी उनकी औकात दिखानी है। कैसे होगा ये सब? इतनी लंबी कथा सुनाने का मकसद आपको यह बताना है कि हमारी फिल्में हवा में नहीं बनतीं बल्कि उनके लिए बाकायदा एक कहानी सोची जाती है, उसे फैलाया जाता है, समेटा भी जाता है। यह बात अलग है कि इस सोचने-फैलाने-समेटने के चक्कर में कई बार कहानी का गुड़गांव हो जाए तो इसमें लेखकों का क्या कसूर…! भई, साइकिल के टायर जितनी कहानी में ट्रैक्टर के टायर जितनी हवा भरेंगे तो पटाखा तो फूटेगा ही।
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Fateh

गैट-सैट-स्लीप ‘फतेह’
पंजाब के किसी गांव में लोगों को लोन दिलवाने वाली एक लड़की दिल्ली आकर गुम हो जाती है। उस लड़की के घर में रह कर एक डेयरी फॉर्म में नौकरी करने वाला सीधा-सादा फतेह सिंह उसे ढूंढने निकला है। फतेह जहां जाता है, लाशें बिछने लगती हैं। कौन है फतेह? क्या करता है वह? फतेह इस लड़की को तलाश पाया या…! किसी खुफिया एजेंसी के रिटायर्ड एजेंट के किसी कारण से तबाही के धंधे में वापस आने की कहानियां खूब बनती हैं। बस इन एजेंटों के वापस आने का कारण अलग-अलग होता है। इस फिल्म में कारण है लोन देने के बहाने लोगों का डेटा जमा करना और उसके ज़रिए उन के बैंक अकाउंट खाली करना। इस फिल्म (Fateh) में यह तामझाम खूब फैला हुआ दिखाया गया है लेकिन यह न तो तार्किक है और न ही कायदे से समझाया गया है।
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Chaalchitro: The Frame Fatale

कसी हुई सधी हुई ‘चालचित्र’
कोलकाता शहर में मर्डर हो रहे हैं-एक के बाद एक। सिर्फ अकेली रह रही लड़कियों के मर्डर। हर लाश दीवार पर टंगी मिलती है। ज़ाहिर है कि यह किसी सीरियल किलर का काम है। डी.सी.पी. कनिष्क चटर्जी हैरान है क्योंकि बिल्कुल इसी पैटर्न पर 12 साल पहले भी कई मर्डर हुए थे लेकिन वह कातिल तो कैद में है। तो कौन कर रहा है ये मर्डर…? और इससे भी बड़ा सवाल यह कि क्यों कर रहा है वह ये मर्डर…? इस किस्म की रहस्यमयी मर्डर-मिस्ट्री वाली फिल्मों में अक्सर कहानी का फोकस ‘कौन कर रहा है’ के साथ-साथ ‘क्यों कर रहा है’ पर भी होता है। सीरियल किलिंग आमतौर पर मनोरोगी, मनोविक्षिप्त लोग किया करते हैं, सो ऐसी कहानियों को सस्पैंस थ्रिलर के साथ-साथ साइकोलॉजिकल-थ्रिलर का बाना पहनाया जाता है। लेखक प्रतिम डी. गुप्ता ने यहां भी ऐसा ही किया है और बखूबी किया है। इसके साथ ही उन्होंने इन हत्याओं की तफ्तीश में जुटे चार पुलिस अफसरों की निजी ज़िंदगियों में भी बखूबी झांका है। ऐसा करने से ये लोग ज़्यादा ‘मानवीय’ लगे हैं और वास्तविक भी। यही इस फिल्म (चालचित्र Chaalchitro) की खूबी है कि यह अपना धरातल नहीं छोड़ती। इसे देखते हुए यह नहीं लगता कि आप फिल्मी मसालों में डूबी कोई कहानी देख रहे हैं। हालांकि कुछ एक बैक स्टोरीज़ कहीं-कहीं कमज़ोर पड़ती है और कहीं-कहीं स्क्रिप्ट भी हौले-से लड़खड़ाई है, लेकिन एक लेखक के तौर पर प्रतिम जहां हल्के पड़े, एक निर्देशक के तौर पर वह उसे संभाल लेते हैं। उनके निर्देशन में कसावट है और वह फिल्म में ज़रूरी तनाव, भय, रोमांच व इमोशन्स रच पाने में कामयाब रहे हैं।
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Baby John

कचरे का सुल्तान
2016 में एक तमिल एक्शन-थ्रिलर फिल्म आई थी ‘थेरी’। इसमें कहानी, स्क्रिप्ट और निर्देशन एटली का था। वही एटली, जिन्हें हम हिन्दी वाले अब शाहरुख खान की फिल्म ‘जवान’ के डायरेक्टर के तौर पर पहचानते हैं। हालांकि ‘थेरी’ भी कोई ओरिजनल फिल्म नहीं थी लेकिन उस समय तमिल में यह सुपरहिट हुई और बाद में इसके डब संस्करण को हिन्दी वालों ने भी यहां-वहां खूब देखा। अब इतने साल बाद उसी ‘थेरी’ का हिन्दी रीमेक आया है जिसके निर्माताओं में एटली भी हैं। लेकिन एटली ने इसे निर्देशित नहीं किया है बल्कि साऊथ के ही कालीस से निर्देशित करवाया है। अपनी बेटी के साथ केरल के एक छोटे-से कस्बे में बेकरी चला रहा बेबी जॉन मारधाड़ से परे रहने वाला आदमी है। लेकिन तभी कुछ ऐसा होता है कि वह वापस अपने उस हिंसक अवतार में आ जाता है जब वह एक दबंग पुलिस अफसर हुआ करता था जो बुरे लोगों को पटक-पटक कर मारता था। क्या कारण था कि जो उसने पुलिस की नौकरी छोड़ी? अब क्या कारण है कि वह वापस मारधाड़ करने लगा?
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Despatch

कुछ ढंग का ‘डिस्पैच’ करो भई
इस फिल्म का बेहद कसा हुआ, तेज़ रफ्तार ट्रेलर दिखाता है कि मुंबई के एक अखबार ‘डिस्पैच’ का क्राइम रिर्पोटर जॉय बाग एक ऐसे मामले की तह तक जाने की कोशिशों में लगा है जिसमें हजारों करोड़ का घपला है और बड़े-बड़े लोग शामिल हैं। ज़ाहिर है कि इतना सब है तो खतरे भी बड़े हैं। जॉय बाग कर पाएगा इस काम को? कैसे करेगा वह इसे?
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Zero Se Restart

‘ज़ीरो से रीस्टार्ट’ करने की प्रेरक कहानी
अक्टूबर, 2023 में आई और बेहद सराही गई विधु विनोद चोपड़ा की विक्रांत मैस्सी वाली फिल्म ‘12वीं फेल’ को देख चुके दर्शकों को अगर यह बताया जाए कि यह फिल्म तो कभी बननी ही नहीं थी तो उन्हें कैसा लगेगा? आप को यह जान कर भी हैरानी हो सकती है कि इस फिल्म को इंडस्ट्री के पांच बड़े निर्देशकों ने यह कह कर ठुकरा दिया था कि भला यह भी कोई कहानी है, इसे कौन देखने आएगा? लेकिन यह फिल्म बनी और ऐसी बनी कि जिसने भी इसे देखा, इसकी तारीफ किए बिना न रह सका। इसी ‘12वीं फेल’ के न बन पाने और आखिर बन जाने के संघर्ष की कहानी दिखाती है ‘ज़ीरो से रीस्टार्ट’-कुछ इस अंदाज़ में कि आप फिर से प्रेरित होते हैं और आपका मन इसकी और विधु विनोद चोपड़ा की पूरी टीम की तारीफ किए बिना नहीं रह पाता।